Wednesday 11 September 2019

स्त्री को समझना कितना कठिन ?

पार्थ :- हे कृष्ण ! सब कहते हैं स्त्री को तुम भी नहीं समझते। तुम तो भगवान हो!
आखिर स्त्री क्या है?

कृष्ण:- पार्थ ! स्त्री को मैं भला कैसे नहीं समझूंगा ? मैनें तो देवकी को भी देखा है जिसने ममता के लिये मुझे त्याग दिया और मैनें यशोदा को भी देखा है जिसने ममता के प्रतिमान गढ़े !

मैनें राधा को भी देखा है जिसने बिना मुझसे कोई भी अधिकार चाहे मुझसे प्रेम किया और मैनें रुक्मिणी को भी देखा है जो प्रेमवश मुझ पर सम्पूर्ण अधिकार चाहती है।

कल युग मीरा को भी देखेगा जो मेरे पाषाणों के प्रतिरूप से भी ऐसे प्रेम करेगी कि मुझे उन पाषाणों से भी श्वास लेनी पड़ेगी।

अर्जुन :- तो स्त्री को समझना ईश्वर के भी वश में नहीं,ऐसा क्यों कहते हैं लोग?

कृष्ण :- अपने हर अपराध और पाप के ठीकरे मनुष्य सदा ईश्वर पर ही तो फोड़ता है। स्त्री को ही क्या वह तो स्वयं को भी नहीं समझ पाता है।

एक पुरुष जिस दिन स्वयं को समझ लेगा,स्त्री उसके लिए कोई कठिन समीकरण नहीं रहेगी पार्थ !


स्त्री अपने पुरुष का गुणनखण्ड होती है। वह पुरुष को सरल बनाने को विभक्त होती है पर पुरुष जब उससे वापस गुणनफल नहीं प्राप्त कर पाता तो वह उसे समझना असंभव मान लेता है।

स्त्री अपने पुरुष सी ही होती है।

तुम्हें सिर्फ उसका पुरुष बन जाना है।

वह तुम्हारा गुणनखण्ड हो कर तुममें समा जाएगी।

#काल्पनिक_वार्तालाप

😊

Wednesday 21 March 2018

मैं तुम्हारे ही लिए

तुम जब भी कुम्हलाओगे
मैं जल सी शीतलता लाऊंगी
पीड़ा में होगे जब भी तुम
औषधि बन कर आऊँगी

पर मेरा प्रेम परखने को तुम
जान कर मत कुम्हला जाना
मेरी परीक्षा लेने को ही बस
जानी बूझी पीड़ा मत ले आना

प्रेम वही,जो असीमित हो जाये
प्रेमियों की परन्तु,निश्चित सीमाएं हैं
स्नेह वही,जो अनंत हो जाये
नेह-प्रदर्शन की पर,निश्चित गणनाएं हैं

तुम मेरे अपराध क्षमा कर देना
तुम्हारी भूलें मैं भूल जाऊँगी
मेरे पग भटकें तो तुम दिशा दिखा देना
तुमको पथरीले रस्तों से मैं वापस ले आऊँगी

Wednesday 14 March 2018

माँ हो जाने का अर्थ

पहला गर्भधारण!
अलौकिक अनुभव!!
थोड़ी सी असुविधाएं और ढेर सी चिन्ताएं!

विवाह के एक वर्ष के पश्चात जब ये समय मेरे जीवन में आया तो मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिये शब्द तो दूर भावों की भी बहुत कमी थी।

लगा जैसे मैं स्वयं ब्रह्मा हो गयी हूँ,सृष्टि रचूंगी अब!

लगा,विष्णु भी मैं ही हूँ,मेरा बच्चा मेरे शरीर से पलेगा!
मैं गर्व से सराबोर थी!

ईश्वर से कहती,"देखो मैं तो आप सी हो गयी हूँ।बस अपने बच्चे का लिंग निर्धारण नहीं कर सकती अन्यथा अपनी प्रथम संतान के रूप में बेटी स्वयं निर्मित कर लेती।आप कर सकते हो तो मुझे बेटी देना pleeeeeeeeezzzzz"

इन्हीं सब चिंताओं और मनःस्थिति के बीच मेरा गर्भकाल आगे बढ़ रहा था।
प्रथम बार एक महिला किन किन चिंताओं से गुजरती है मायें जानती ही होंगी।संभवतः पिता भी अवश्य जानते होंगे।

बच्चा स्वस्थ हो,हाथ पैर,नाक कान आदि ठीक ठाक हों जैसे विचार तो पीछा छोड़ते ही नहीं।

ऊपर से मेरे सारे शरीर में खुजली की समस्या....मुझे स्वयं पर तो लज्जा आती ही,ये भी लगता कि कि अंदर बच्चे को कुछ होगा तो नहीं...
और प्रथम गर्भधारण में मेरा तो पेट भी बाकी महिलाओं की तरह बहुत बड़ा नहीं हुआ।
मैं हर समय चिंता में रहती,डॉ की जान खाती "डॉ mam,अंदर बढ़ तो रहा है ना बच्चा?" डॉ मुस्कुरा कर कहतीं निश्चिंत रहो! कान्हा सब ठीक करेंगे।

ऐसी मनोदशा में मैं जब टेम्पो,रिक्शा आदि में यात्रा करती तो मुलायम सिंह यादव के दौर की सड़कें मेरे आगे किसी पूतना से कम नहीं होतीं।
मैं डरते डरते रिक्शा,टेम्पो में बैठती तो चालक से विनती करती कि "भईया धीरे चलाना"

और आपको एक बात मैं दावे से कह सकती हूँ कि सड़क पर चलने वाले लगभग सभी पुरुष एक गर्भवती स्त्री का भाई होने का दायित्व स्वतः निभाते हैं।

टेम्पो स्टैंड पर अपने नंबर के लिए हड़बड़ी में रहने वाले,लाठी डंडों तक तुरंत उतरने वाले लड़ाके टेम्पो चालक मुझे देखते ही मेरे अभिभावक की भूमिका में आ जाते और मुलायम काल की सड़क का हर गड्ढा बचाने का प्रयास करते।यदि असफल हो भी जाते तो सहचालक चिल्लाता "$%%के!पीछे का ध्यान रख!धीरे चला बे!" मैं हँस देती!सोचती कि यदि मैं ब्रह्मा और विष्णु हूँ तो ये कौन से भोले भंडारी से कम हैं!

जब उतरने की बारी आती तो सहचालक ध्यान से मुझे उतारते, मेरी तरफ निश्छल मुस्कान देते।

और मैनें यही टेम्पो चालक और सहचालक लड़कियों को छेड़ते,उनसे बदतमीजी करते और उनकी हँसी भी करते देखे हैं।

यही तो सम्बन्ध है पुरुष और स्त्री के बीच!जैसे ही स्त्री सुरक्षा माँगती है पुरुष सुरक्षा प्रहरी बनने में देर नहीं करते।पर स्त्री बराबरी मांगे तो उनका अहम घायल होता है।

इस तरह तमाम सुखद अनुभवों के साथ वह समय आया जब मैं माँ बनी और ईश्वर मेरे स्वयं को ईश्वर समझने के गर्वोन्मत व्यवहार से क्रोधित नहीं हुआ और मुझे क्षमा करते हुए  मुझे बेटी  का अनमोल उपहार दिया!

बिटिया लगभग सात महीने की थी तब मैनें नौकरी के लिये आवेदन किया था,मूल निवास प्रमाण पत्र कचहरी परिसर में बनना था,पहली बार पूरा दिन मैं बेटी को ले के घर से बाहर थी।दिन में कई बार दूध पिलाना था।कचहरी में वकील,अपराधी और पुलिस वाले..... सभी के बारे में हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं पर मजाल थी कि किसी ने मुझे दूध पिलाते देखने में कोई रुचि दिखाई हो!बल्कि एक वकील साहब ने मुझे अपने छोटे से बस्ते में बैठने के लिए कहा और बोले "सिर्फ एक माँ ही अपने बच्चे का ऐसा ध्यान रख सकती है" मैं आपकी जगह होता तो बच्चे की जगह खुद रो रहा होता।

ऐसे पुरुष क्या प्रताड़ना के योग्य हैं?

माँ बनने का प्रथम चरण संभवतः वासना ही है परंतु एक महिला जब माँ बनती है तो वह वासना से मुक्त हो जाती है,स्तनपान हो या बच्चे को संभालने में असावधानी वश अस्त व्यस्त होना,माँ के दिल और दिमाग में वासना या अन्य पुरुष हो ही नहीं सकता और यही माँ होने की सफलता है।और जब तक एक शिशु के पालन पोषण की अवधि में माँ वासना मुक्त रहती है,कोई सामान्य पुरुष उस पर दृष्टिपात नहीं करता।

और यदि एक माँ अपने शिशु के पालन पोषण के समय वासना मुक्त नहीं है और उसे अन्य पुरुषों के घूरने का खयाल आ रहा है तो उसे गुप्त रोग वाले हकीम जी से मिल लेना चाहिये।

निष्पक्षता/निरपेक्षता बनाम पक्ष/धर्मनिष्ठा

एक बार पार्वती जी धरा भ्रमण पर निकलीं।

उन्होंने धरा पर प्रसन्न चित्त महिलाएं और पुरुष देखे।स्त्रियां पुरुषों के साथ मिलकर कृषि से लेकर परिवार के पालन पोषण में सम अधिकार से भाग ले रही थीं और जीतोड़ मेहनत में भी प्रसन्न हो कर संगीत,नृत्य में डूबे हुए इतने मगन थे कि जैसे दुख,दरिद्रता उनसे हारी हुई थी।

पार्वती जी ये सब देख कर अत्यंत प्रसन्न हुईं।

थोड़ा आगे बढ़ीं तो देखती हैं कि किन्नरों का एक दल बैठा हुआ था।सभी किन्नर विचार कर रहे थे कि कब किसके यहां विवाह समारोह या बच्चा पैदा हो तो उन्हें भी उत्सव और धन प्राप्ति का अवसर मिले।

पार्वती जी उन्हें देख कर दुखी हुईं कि ये बेचारे प्रसन्नता के लिये अन्य पर निर्भर हैं जबकि पुरुष और स्त्रियों को ऐसी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

पार्वती जी शिव जी के पास पहुँची और किन्नरों की इस समस्या को सुलझाने के लिये विनती की।
शिव जी ने उन्हें समझाया कि ये विधि का विधान है।किन्नरों के ये भाग्य है और उन्हें इसे स्वीकार करना होगा।

पर वह पत्नी ही क्या जो पति को अपने समक्ष नतमस्तक न कर सके।पार्वती जी की अश्रुधारा बह निकली।पार्वती जी के अश्रु देख शिव जी विचलित हो गए।अंततः उन्होंने अन्य पतियों की भांति अपने शस्त्र पार्वती जी के सम्मुख डाल दिये और बोले "जाओ प्रिये!कल प्रातः किन्नरों को ले कर आना, मैं उनकी समस्या का समाधान करूँगा"

पार्वती जी प्रसन्न हो किन्नरों के पास दौड़ी गयीं और उनसे कहा कि कल शिव जी तुम्हारी समस्याओं का अंत कर देंगे।

किन्नर भी अत्यंत प्रसन्न हुए।आपस में विचार विमर्श करके वे अगली भोर शिव जी के पास पहुँचे।

शिव जी ने मुस्कुराते हुए उनसे कहा "हे किन्नरों!मेरी प्रिये आपको देख के अत्यंत दुःख में हैं और मुझसे उनका दुख देखा नहीं जाता अतः आप अपने लिये स्वयं ही महिला या पुरुष होना चुन लीजिये।"

ये कहते हुए शिव जी ने  अपने पारेन्द्रिय ज्ञान से ब्रह्मा जी और विष्णु जी से संपर्क कर कहा कि "हे देवों!कुछ ऐसा कीजिये कि मेरी पार्वती की इच्छा का सम्मान भी रह जाये और विधि के विधान पर भी आँच न आये।"

दुखी पति का दुख एक पति ही समझ सकता है।ब्रह्मा जी और विष्णु जी ने गहन चर्चा के पश्चात समस्या का समाधान खोजा और शिव जी को कहा कि वे किन्नरों को चाहे पुरुष बनाएं या महिला बस वरदान देते समय आगे निष्पक्ष लगा दें।

अर्थात् जो किन्नर पुरुष बनना चाहे उसे वरदान दें कि "वत्स! तुम निष्पक्ष पुरुष बनो!"
ठीक यही महिला के लिये भी करें!

शिव जी की सभी शंकाएं मिट गयीं।

यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि कुछ किन्नरों ने एक ही जन्म में अपने अपने कष्टों से मुक्ति के लिये किन्नर रहना स्वीकार किया।

और जो किन्नर महिला अथवा पुरुष बने वे कालांतर में निष्पक्ष कहलाये।

इक्कीसवीं सदी में बुद्धिमान पुरुष/महिलाएं भक्त हुए और मूर्ख पुरुष/महिलाएं चमचे हुए।

और वे किन्नर जो अपनी पसंद से महिला/पुरुष हुए,वे निष्पक्ष हुये।

आज भी ये निष्पक्ष किन्नर स्वयं को किसी पक्ष के अनुरूप नहीं पाते और तड़पते हुए कभी इधर और कभी उधर लुढ़कते से रहते हैं।

और अपनी निष्पक्षता की पीड़ा वे गर्व के अभिनय से छुपाते हैं कि "जी,हम तो निष्पक्ष हैं"

और ऐसे निष्पक्ष आज भी झुंड बना कर NDTV, JNU आदि स्थानों पर तालियाँ बजा कर विधि के विधान का मान रख रहे हैं।

Thursday 8 March 2018

पूरक

स्त्रियों सी नदियाँ कहीं रुकती नहीं,
सदा बहती रहती हैं
सभ्यताओं का लालन पालन करती हैं
प्यास बुझातीं,ग्राम-नगर बसाती जातीं
मानवता पर इठलातीं,जीवों की माँ हो जाती हैं

ये नदियां हैं..........

पुरुषों से पर्वत सदा अचल,अटल,अविचल रहते हैं
मानव का पथ रोकते से प्रतीत होते
धरती की छाती पर बोझ से लगते
पर नदियों के जन्मदाता यही तो हैं

स्त्री सी नदियों के बिना जीवन नहीं और
पुरुषों से पर्वतों के बिना नदियां नहीं

पथ में स्थिर हों तो मृत्यु को प्राप्त हों
सागर-लक्ष्य को प्राप्त हों तो पूर्ण हो जाती हैं
मिठास छोड़ कर नमक हो जाती हैं
क्योंकि जानती हैं वे सागर से ही हैं
सागर बादल देता है,बादल वर्षा लाते हैं
वर्षा ही तो नदियों को यौवन देती हैं

पर्वत नदियों के पिता हैं,सागर साजन है
इन दोनों के बिना नदियाँ नहीं होतीं
वैसे ही जैसे पुरुषों के बिना स्त्रियां नहीं होतीं
और स्त्रियों के बिना जीवन नहीं होता
😊

Wednesday 8 June 2016

पंजाब की पहचान

बहुत दिनों से लिखना चाहती थी पर संभवतः ये सबसे अच्छा समय होगा इस पर चर्चा करने का...
पंजाब में नशा.....
मुझे ये बात कुछ समझ नहीं आती कि एक पूरा प्रान्त नशे की गिरफ्त में कैसे आ गया? मान भी लिया जाये कि कुछ खलनायकों के समूह ने युवाओं को उकसाया,उन्हें नशे का आदी बनाया तब भी क्या इतना होना पर्याप्त है? फिर उन खलनायकों ने और स्थानों पर भी प्रयास तो अवश्य किया होगा। इस मात्रा में वे कहीँ और क्यों सफल नहीं हुए? इसी नशे की वजह से पंजाब कैंसर की भी चपेट में आ गया है।
पर सिर्फ पंजाब ही क्यों? क्या सरदार और पंजाबी जनों को बहका लेना इतना आसान है? अपने श्रम और उन्नत खेतों के लिए जाना जाने वाला पंजाब और पंजाबी बंधु क्या सिर्फ बहकावे में आ कर नशा करते हैं?
कुछ संभावित उत्तर हैं मेरे पास और मित्र जनों की आपत्ति और असहमति हो सकती है उन पर,परंतु पड़ताल अवश्य होनी चाहिए।
मुझे लगता है कि इसके पीछे आपकी जीवन शैली जिम्मेदार थी।हर बात को बहुत हलके में लेने की प्रवृत्ति एक और जिम्मेदार कारण है।दिन भर हाड़ तोड़ श्रम और रात में क्या?? एक सोच " कमाते ही किसलिए हैं? अच्छा खाने पीने के लिए ही न!" , "मरना तो है ही,तो सारे शौक पूरे कर के मरो" , "जो नहीं पीते वो नहीं मरेंगे क्या"
ऐसी सोच में पहले आप मौज मस्ती करते हैं,जीवन का आनंद उठाते हैं और फिर आनंद आदत हो जाता है।बहुत सारे तेल और मसाले के खाने के पंजाबियों के शौक से कौन वाकिफ नहीं?ये गरिष्ठ भोजन और उस पर शराब का साथ..... और उसे बुरा भी न समझना,बल्कि जो समझे उस पर हंस देना.... ये प्रवृत्ति जिम्मेदार है आपको नशे का गुलाम बनाने के लिए।
जीवन के प्रति ये हल्का रवैया आपको नशे का गुलाम बना देता है। कल्पना कीजिये पंजाब में शराब और अन्य नशा प्रतिबंधित हो जाये!! पंजाबियों की खुद की छोड़िये दुसरे प्रान्त भी सरदारों और पंजाबियों की कल्पना बिना शराब के नहीं कर सकते।
सारी दुनिया संता बंता पर चुटकुले बनाती है पर पंजाबी भाई शराब पर चुटकुले बनाते हैं। शराब पीना आधुनिकता का पर्याय बन गया है। और यही शराब  पिता बेटे के बीच,पति पत्नी के बीच,भाई बहन के बीच आधुनिकता को स्थापित करने का कार्य करती है। बेटियां कौन सी बेटों से कम हैं को सिद्ध करने के लिए जब शराब का सहारा लिया जाये तो समझिये कितना भयावह हो जायेगा परिदृश्य!

उड़ता पंजाब फ़िल्म में  क्या है,मैं नहीं जानती,जानना भी नहीं चाहती। पर इतना अवश्य चाहती हूँ कि फिल्में पंजाबियों के श्रम पर,उनकी जीवंतता पर,उनके भंगड़े पर,उनकी बहादुरी पर बने न कि उनके नशे की आदतों पर।और इसके लिए सबसे पहले पंजाबी भाई समझें कि शराब बेहद बुरी चीज है।इसे शौक ही मत बनाइये कि ये आदत बन पाये।

Sunday 1 November 2015

करवा चौथ की महत्ता

ये मौसम जबकि पत्ते झड़ते हैं,गुलाबी सर्दियाँ द्वार पर खड़ी मुस्कुरा रही होती हैं,ऐसे प्रेम लुटाते मौसम में उत्तर भारत की हवा में दीवाली के दिये जलने से पहले करवा चौथ का त्यौहार अपनी महक बिखेर देता है।मौसम में प्रेम की जो कुछ कमी रह जाती है वो करवा चौथ का पर्व न सिर्फ पूरी करता है बल्कि प्रेम पर्व का सामूहिक उत्सव मनाने पर हमें मजबूर भी कर देता है।
ऐसे में जब कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पुरुष या महिलाएं करवा चौथ को लिंग भेद या स्त्री विरोधी प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो क्षोभ भी होता है और पीड़ा भी कि किस और पर्व में प्रेम का ऐसा पवित्र अनुष्ठान होता है? कहीं चाँद को देख के बेचारे निरीहों पर सामूहिक मृत्यु आती है तो कहीं चाँद सिर्फ moon walk भर के लिए जाना जाता है,हम चन्द्रमा को अपने प्रेम का साक्षी बनाते हैं।
व्रत के विधान के अनुसार महिलाएं भूखी प्यासी रहती हैं पर प्रथम तो हिन्दू धर्म में कोई व्रत ऐसा नहीं जो किसी को मजबूर कर दे कि जबरदस्ती निराहार रहा जाये।दुसरे ये व्रत रखने वाली महिलाओं की अपनी श्रद्धा और उनकी अपनी इच्छा है।एक तरफ जहाँ अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए तथाकथित बुद्धिजीवी सम्मान वापसी और राष्ट्र अपमान के अस्त्र लेकर ताल ठोक रहे हैं, वहीँ दूसरी तरफ ये करवा चौथ जैसे प्रेम पर्व की हंसी उड़ाते हुए व्रत रखने वाली स्त्रियों का उपहास उड़ाते हुए दिखते हैं।ये स्व-धर्म द्रोही और हिंदुओं से भयाक्रांत अधर्मियों की आदत हो गयी है कि हर हिन्दू पर्व में उन्हें कमियां निकालनी हैं और उनका उपहास उड़ाना है।
करवाचौथ का सर्वविदित पक्ष ये है कि महिलाएं सारा दिन पति की लंबी आयु के लिए  निर्जल उपवास रखती हैं,दिन भर रसोई में तरह तरह के पकवान बनाती हैं और साँझ को सोलह श्रृंगार करके पति का मुंह और चाँद को एक साथ देख के अपना व्रत खोलती हैं।पर क्या करवा चौथ का महत्त्व और उसके प्रति महिलाओं का छलकता उत्साह इस सर्वविदित पक्ष के कारण ही हो सकता है?सालों साल इस पर्व को हर वर्ष इतनी ऊर्जा और उत्साह से महिलाएं सिर्फ इसलिए ही तो नहीं मना सकतीं कि इससे पति की आयु लंबी हो जायेगी,जबकि सभी जानते हैं कि करवा चौथ मात्र ही किसी भी पुरुष की अमरत्व की गारंटी नहीं।ऐसा भी नहीं कि करवाचौथ को श्रद्धा से करने वाली कोई महिला असमय अपना पति खोकर विधवा नहीं हो जाती।ये तो व्रत करने वाली महिलाएं भी जानती ही हैं,सभी सामूहिक रूप से कमअक्ल या मानसिक रोगी तो नहीं हैं।
वास्तव में करवाचौथ के प्रति उत्साह और ऊर्जा उसके उस छुपे पक्ष में है जो महिलाएं लज्जा से और पुरुष अपने पुरषत्व के अहम् में बता ही नहीं पाते।सुबह उठते ही चाय न मिलने पर पत्नी का सर भारी होते देख अपनी माँ और अन्य पारिवारिक सदस्यों से छुप कर अपनी चाय पिलाते पति से मिलने वाले प्रेम की तुलना हो सकती है क्या?रसोई में काम करती पत्नी की तरफ बार बार देखते हुए पति की दृष्टी कि उसकी पत्नी का रक्तचाप सामान्य तो है न ! उसकी कनखियाँ पत्नी का रक्तचाप बढ़ने नहीं देतीं और हृदय की धड़कन सामान्य नहीं होने देतीं।उस समय हर महिला नवविवाहिता सा ही अनुभव करती है।यदि पति सामने नहीं है तब भी वह किसी न किसी माध्यम से तो अपना प्रेम और चिंता व्यक्त कर ही देता है।संदेसा भेज ही देता है कि सर दर्द हो तो कम से कम चाय पी लेना कोई जरुरत नहीं है सारा दिन मेरे लिए प्यास और भूख सहने की।और  इसी प्रेम के साथ आ जाती है असीमित ऊर्जा और ईश्वर पर श्रद्धा और भोला सा विश्वास कि मैं यदि सारा दिन निराहार रह कर ईश्वर से मांगू तो वे मेरे पति को दीर्घायु दे ही देंगे।असल में व्रत से पति को दीर्घायु भले न मिले पर वैवाहिक जीवन में प्रेम की आयु तो बढ़ ही जाती है।तीन तलाक का साहस हमारे यहाँ पति कैसे करे फिर भला?
प्रत्येक धर्म में निराहार रह कर अपने ईष्ट को पूजने का विधान है।रोजे रखने से इमान मुसलसल होता तो दुनिया में इतना खून ख़राबा होता?पर फिर भी रखते हैं न! तो पति के लिए प्रेम दर्शाते व्रत पर ही क्यों बुद्धि का घड़ा उलट देते हैं बुद्धिजीवी?
पत्नियां ही क्यों रखें व्रत, ये भी बड़ा धारदार प्रश्न है! वैसे तो हमने कभी पूछा नहीं कि ईद की नमाज में महिला पुरुष की सहभागिता क्यों नहीं?हमने ये भी नहीं पूछा कि कथित रूप से उपहार बाँटने वाला संता सफ़ेद दाढ़ी मूंछो वाला पुरुष ही क्यों?कोई महिला क्यों नहीं? महिला केंद्रित और कितने त्यौहार हैं और धार्मिक रीतियों में?शक्ति से लेकर सरस्वती तक और यज्ञ,अर्धनारीश्वर से लेकर यज्ञ-हवन में बिना पत्नी के पूजा सिद्ध न हो सकने तक हिन्दू धर्म में महिलाओं की सहभागिता सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है,ज्ञान चक्षु खोल के देखिये! रही बात व्रत की तो ये महिलाओं की अपनी प्रकृति है उनकी अपनी इच्छा है। बरखाओं और सगरिकाओं को उनका प्रेम समझ नहीं आता तो उन महिलाओं को भी आपके बहु-प्रेम और कुछ सालों बाद बदलते पति नहीं समझ आते तो वे मांगने जाती हैं क्या आपसे जवाब?तो किसी बरखा और किसी सागरिका को हमारे लिए संवेदनाएं रखने की आवश्यकता नहीं।आपकी गिरगिटिया संवेदनाएं हमें नहीं चाहिए।
अब उपहास का एक भाग ये भी है कि ये त्यौहार मात्र आभूषणों और लकदक करती साड़ियों का प्रदर्शन मात्र है तो आभूषणों और लकदक करती साड़ियों के प्रदर्शन से इतनी आपत्ति है तो रोज होते तमाम फैशन शो पर प्रतिबन्ध सबसे पहले लगने चाहिए। वहां क्या होता है? उनसे कोई आपत्ति होते देखा नहीं आज तक बुद्धिजीवियों को। सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो,बाल लीलाओं का हो या स्त्री का हो वह तो है ही प्रदर्शन के लिए,और वह तो और निखरता ही प्रदर्शन से है।सौंदर्य प्रदर्शन को अंग प्रदर्शन के समानांतर रख के कुतर्क की चेष्टा न करें!
रोज बदलती प्रोफाइल फोटो,अपने घर,गाड़ी की फ़ोटो दिखाना,और करवाचौथ व्रत रखती स्त्रियों को बैद्धिक रूप से कमजोर दिखाते आपके विचार क्या आपका प्रदर्शन नहीं?प्रदर्शन अपने वैभव का और अपनी सड़ी मानसिकता वाली बौद्धिकता का!
प्रदर्शन तो चारों ओर है,हर जगह है।सनी लीओन का प्रदर्शन ठीक और कपडे,गहने पहने व्रत रखने वाली महिला का प्रदर्शन उपहास की विषयवस्तु?? Get well soon!
और यूँ भी ये व्रत सिर्फ प्रदर्शन कर सकने वाली ही नहीं बल्कि गाँवो और उन भद्दर देहातों की महिलाएं भी रखती हैं जहाँ पिछले छः दशकों से इस देश के और इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के पालनहार बिजली की व्यवस्था तक नहीं पहुंचा पाये हैं। उनके लिए ये व्रत प्रदर्शन का साधन नहीं पर फिर भी वे रखती हैं।आपके लिए नहीं,अपने पतियों के लिए अपने प्रेम के लिए।
और जहाँ प्रदर्शन होता भी है वहां तो अब पुरुष भी व्रत रखने लगे हैं अपनी पत्नियों के लिए और ध्यान दें इस का हमने मुक्त हृदय से स्वागत किया है,कोई फतवा जारी नहीं किया।जहाँ नहीं रखते वहां महिला को पता होता है कि वह पुरुष से शक्ति में श्रेष्ठ है तो पति से भी व्रत का दुराग्रह क्यों करे भला?जिन्हें अपनी शक्ति पर संदेह है वे करें पुरुषों से बराबरी।हम न तो प्रेम में बराबरी करते हैं न शक्ति में और दोनों में पुरुषों से भी  श्रेष्ठ  हैं और नारीवाद की ध्वज-वाहिकाओं से भी।